जिंदगी और मौत का कोई भरोसा नहीं
जिंदगी और मौत कभी भी आ सकती है। हम कभी अंदाजा नहीं लगा सकते कि आज किसी की मौत होने वाली है। पर कभी-कभी ऐसी स्थिति बन जाती है कि जहां एक इंसान को जाना होता है, वहां पूरा का पूरा परिवार ही साथ में निकल पड़ता है। मेरी समझ से कहीं भी घूमने जाएं, तो पूरा परिवार एकसाथ नहीं जाना चाहिए। इसका एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण है – अगर कोई हादसा हो जाए, तो पूरा परिवार नष्ट न हो जाए।
रीवा में दर्दनाक हादसा
यहां ऐसा ही एक बेहद दर्दनाक हादसा हुआ। मध्यप्रदेश के रीवा जिले में एक ट्रक, जिसमें सीमेंट भरे हुए थे, अनियंत्रित होकर एक टेम्पो पर पलट गया। टेम्पो में कुल 7 लोग सवार थे, और सभी की मौके पर ही मौत हो गई। दुख की बात ये है कि इनमें से 6 लोग एक ही परिवार के थे – दादा-दादी, बेटा-बहू और उनके दो बच्चे। सातवां व्यक्ति टेम्पो चालक था।
पूरा परिवार एक पल में खत्म
सोचिए, एक पूरा परिवार एक पल में खत्म हो गया। ट्रक जैसे भारी वाहन के पलटने के बाद कोई इंसान बच पाए, यह बहुत ही मुश्किल है। मामूली सी चीज गिर जाए, तो चोट लग जाती है – और यहां तो एक पूरा ट्रक गिर गया। प्रशासन और आरटीओ की लापरवाही
गांव के लोगों का कहना है कि यह हादसा प्रशासन और आरटीओ की लापरवाही का नतीजा है। इतना भारी ट्रक, जो नियंत्रण से बाहर हो चुका था, फिर भी बिना रोक-टोक के चल रहा था। दूसरी ओर, टेम्पो में तय सीमा से कहीं अधिक लोग सवार थे। इस पर भी कोई निगरानी नहीं थी।
सवारी क्षमता से अधिक भराव की समस्या
ऐसी घटनाओं के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि कई बार लोग ऑटो या गाड़ियों में सवारी क्षमता से कहीं अधिक लोग भर लेते हैं। खासकर त्योहारों या सीजन में, जैसे सोयाबीन की कटाई के समय, मामा लोग अपनी गाड़ियों में 40-50 लोगों को भर लेते हैं – जबकि गाड़ी की क्षमता होती है सिर्फ 10-12 लोगों की। लोग लटक कर, छत पर बैठकर सफर करते हैं। यह सब कुछ खुलेआम होता है, लेकिन न तो पुलिस कुछ करती है, न प्रशासन, और न ही आरटीओ।
निगरानी क्यों नहीं होती?
जब रिश्वत लेनी हो, तब तो ये अधिकारी तुरंत आ जाते हैं। लेकिन आम जनता की सुरक्षा की निगरानी करने कोई नहीं आता। यह बहुत बड़ा सवाल है – क्यों नहीं आती निगरानी?
अस्पतालों की मनमानी और लूट
अस्पतालों की बात करें, तो वहां भी हालात अलग नहीं हैं। डॉक्टर छोटी-सी चोट के लिए भी ₹1 लाख तक मांग लेते हैं। अगर भर्ती होना पड़ जाए, तो बिना किसी खास इलाज के ही दो-तीन दिन में ₹25,000 से ₹1,00,000 तक का बिल थमा देते हैं। अगर मरीज की हालत गंभीर हो गई, तो इलाज के नाम पर लाखों रुपये वसूल लिए जाते हैं – चाहे इलाज किया हो या नहीं।
मरीजों की जान से ज्यादा पैसे की भूख
कुछ अस्पतालों में तो सिर्फ दो बोतल चढ़ाकर मरीज को “डिस्चार्ज” कर दिया जाता है, और लाखों का बिल पकड़ा दिया जाता है। इनका सारा ध्यान केवल पैसे कमाने पर होता है – मरीज जिए या मरे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
सरकार की चुप्पी और जिम्मेदारी
सरकार की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। ऐसे मुद्दों पर सरकार आंख मूंदे रहती है। न कोई जांच, न कार्रवाई। क्या सरकार को यह सब दिखाई नहीं देता? या फिर उन्होंने अंधापन ओढ़ लिया है?